आमतौर से ध्यान को लेकरके लोगों के मन में बहुत सारी भ्रांतियां रहती हैं। और निश्चित ही जब ध्यान में कोई जाता है तो ध्यान का उद्देश्य भी होता है। लेकिन अगर उद्देश्य ही एक बार भ्रांत हो गया तो सारी यात्रा भी भ्रांत हो जाएंगी। ध्यान का उद्देश्य परमात्मा को पाना नहीं है, कुंडलिनी को जगाना नहीं है, vision और sensetion के जगत में भी जाना नहीं है। क्योंकि तुम जानते ही नहीं परमात्मा क्या होता है और जिसको तुम नहीं जानते बस ये जानना है की तुम क्या बात करोंगे। अगर तुम इन्हीं बातों में उलझे की परमात्मा को पाना है, सत्य को पाना है, लेकिन क्या सत्य है ये तो अभी पता नहीं है।
दुसरी भ्रांती है कुंडलिनी जागरण की। अब कुंडलिनी एक विचार है, एक अवधारणा है। तुमको अभी ये पता नहीं है कि ऐसा कुछ होता भी है कि नहीं होता है। तुमने सुना है, किताबों में पढ़ा है, और सुनी सुनाई बातों के आधार पर अपना एक उद्देश्य बनाते हो। तो बहुत सारे मौकों पर ऐसा होता है कि तुम जिसे कुंडलिनी जागरण समझते हैं वो उनका ही मेंटल प्रोजेक्शन होता है, उनका ही मानसिक प्रक्षेपण होता है। और फिर बात करता है सुत्र की vision, sensetion यानी extra sceenetory perception की जो बात है वो भी ध्यान का उद्देश्य नहीं है।
तमाम लोग को अगर लगता है कि अगर हम ध्यान में जाते हैं तो हम भुत भविष्य में झांक पाएंगे, हम कुछ ऐसी reel में inter कर जाएगे जिसमें ऐसे आयाम में प्रवेश कर जाएंगे जहां पर जो sentiosery capability है वो बहुत बढ़ जाएंगी। इनकी क्या आवश्यकता है इनकी तो कोई जरुरत नहीं। जीवन की जो यात्रा अभी तक चली आ रही थी। उसकी व्यर्थता को देखकर ही तो व्यक्ति ध्यान में गया है।
ध्यान सुत्र कहता है कि ध्यान का उद्देश्य यह जानना है की तुम क्या हो। इसमें पहले तो व्यक्ति यही देखेंगा की उसका जीवन कैसे तुकडा - तुकडा जोड़कर बना हुआ है। अभी वो जिसको अपना होना जानता है वो सचमुच में उसका होना है क्या? क्या है वो ? जिसको वो एक individual समझ रहा है, जिसको वो एक ध्यानी समझ रहा है वो सचमुच में है क्या। ऐसा तो नहीं को वो बह कुछ बातों का, विचारों का, भावों एक जोड़ है और बहुत हद तो ये बात सच है। जब वो देखेंगा उसको दिखाई देंगा की हमारी होने की सच्चाई तो बिल्कुल फर्क है। तो ये परत दर परत अपने व्यक्तित्व की परतों को उधेड़ते जाने की प्रक्रिया है।
ध्यान में हमारे क्षद्म व्यक्तित्व का गिरना होता है। और क्षद्म व्यक्तित्व के गिरने में जरुरी है की हम उसमें ये सब धार्मिक व्यक्तित्व भी शामिल ना करले जो ईश्वर, परमात्मा, रहस्यमय बांते इनको हम उसमें शामिल ना करले। अगर हमने ऐसा कर लिया तो हमारा व्यक्तित्व और भारी हो जाएगा। फिर हमें उसे क्लीन करने के लिए उसे हल्का करने के लिए, उसे स्पष्ट करने के लिए और मेहनत करने पडेंगी। इस ध्यान में की बार वो लोग चले जाते हैं जो ध्यान के बारे में कुछ नहीं जानते, जो धार्मिक बातों के बारे में भी कुछ नहीं जानते।
लेकिन जो लोग बहुत ज्ञान इकठ्ठा कर लेते हैं की बार वो अटककर रह जाते हैं। क्योंकि उनके धारणाएं उनके लिए बाधा बन जाती है। वस्तुतः ज्ञानी को ये कोशिश करनी है की वो जाने की उसका होना क्या है। और इसके लिए जो प्रक्रिया है वो थोड़ी नेगेटिव है। नेगेटिव का मतलब approch नेगेटिव है की क्या नहीं हो वो तुमको देखना पड़ेगा और जैसे जैसे ध्यानी ये जानता चला जाता है की वो ये नहीं है, वो नहीं है। ये जो आरोपीत विचार है, आरोपीत इमेज है । बाहर से आया हुआ ज्ञान है जो स्थिति है वो नई है। और जो बाद में जो बचा रहता है वहीं उसका होना होता है। लेकिन वह तक पहुंचना होता है। और वहां पहुंचना ही ध्यान है।
ध्यान का उद्देश्य क्या है
ध्यान तुम्हें तुम्हारे आत्मा से परीचय करता है। इसके लिए तुम्हें निराकार के प्रति जागना होंगा। धीरे धीरे निराकार में छुपे खजाने को तुम जानते हो। वहां पर वो निराकार 3 daimention दिखाई देता है। बाद में अन्तर आकाश जिसे कहते हैं। उसे अन्तर आकाश में अनुभव करोंगे की नांद गुंज रहा है। नुर जगमगा रहा है। आत्मकन विद्धमान है। वह चैतन्य हैआनंदमय है , प्रेममय है।
अंततः ध्यान से ये जानोगे की तुम्हारे अन्दर आत्मा है। और फिर अगला चरण जानोगे की मैं एक आत्मा हुं। और ये जान लोगे की आत्मा हुं तत्काल एक घटना घटेगी कुछ आत्मा कभी विचलित नहीं होती, आत्मा में कभी विचार नहीं होता। आत्मा पर बाहर की घटनाओं का कोई प्रभाव नहीं होता। आत्मा निस्तरंग है। आत्मा में कोई बेचैनी नहीं है।
निष्कर्ष
इन बातों को अगर कोई ध्यानी समझता है तो उसके ध्यान में प्रवेश करने के सारे मार्ग बढ़ी सहजता से प्रसश्त हो जाते हैं। मुझे आशा है की ध्यान का उद्देश्य क्या है इसको आप समझ गए होंगे। अगर आपको ये पोस्ट अच्छी लगी है तो इसे अपने दोस्तों के साथ जरुर शेयर करे।