पंचकर्म चिकित्सा क्या है
पंचकर्म का सरल अर्थ शरीर में बढ़े हुए दोषों अथवा अशुद्धियो या मलो को उनके समीपस्थ मार्गों से शरीर के बाहर निकालना। उदाहरण के लिए यदि दोष शरीर के उर्ध्व भाग में हो अर्थात upper extremities के organ में बढ़े हुए है तो वमन कर्म द्वारा मुख मार्ग से उन्हें बाहर निकालेंगे या फिर शरीर के अधोभाग दोष या मल बढ़े हुए है तो विरेचन कर्म द्वारा उन्हें मल मार्ग से बाहर निकाला जाता है। यदि सम्पूर्ण शरीर में ही यदि दोष बढ़े हुए है तो विभिन्न वस्तियों जैसे अनुवासन वस्ति, आस्थापन या निरुह वस्ति या विमुल उत्तर वस्ति द्वारा इन्हें बाहर निकालकर शरीर की शूद्धी करके शरीर को नियंत्रित अर्थात सम अवस्था में या स्वस्थ अवस्था में लाना ही पंचकर्म चिकित्सा है।
पंचकर्म चिकित्सा को तीन चरणों में किया जाता है।
1. पुर्व कर्म - स्नेहन,स्वेदन।
2. प्रधान कर्म - वमन , विरेचन आदी।
3. पश्चात कर्म - संसर्जन कूम।
पुर्व कर्म में सबसे पहले शरीर की विभिन्न औषधिय तेलों द्वारा जैसे पंचमूल तेल , भलाह तेल या दशमूल तेल आदी द्वारा स्नेहन अर्थात मालिश की जाती है और स्नेहन पश्चात विभिन्न उपकरणों द्वारा शरीर का स्वेटींग प्रोसेस अर्थात स्वेदन कर्म किया जाता है। इस तरह स्नेहन और स्वेदन पुर्व कर्म द्वारा सासागत मलो को पुष्ट तक लाया जाता है अर्थात जो दोष या मल शरीर के विभिन्न भागों में फ़ैल गए हैं उन्हें आमाशय में लाया जाता है।
जिससे फिर वमन , विरेचन आदी पंचकर्म द्वारा उन्हें आसानी से शरीर के बाहर निकाल दिया जाता है। आयुर्वेद के अनुसार एक बार पंचकर्म द्वारा यदि किसी रोग कि चिकित्सा कर दी जाए या उसे खत्म कर दिया जाए तो वह फिर पुनः नहीं होता साथ साथ वह जड़ से खत्म हो जाता है। जैसे त्वचा के रोग जैसे सोरायसिस जो बार बार रिकरंट होता है उसे भी एक बार पंचकर्म द्वारा इसका जड़ से नाश हो जाता है तो यह रोग फिर से नहीं होता। पंचकर्म शरीर शुद्धी द्वारा शरीर का शोधन अर्थात डिटोक्शीफिकेशन किया जाता है।
आज हमारे खानपान जैसे फास्ट फूड या विभिन्न केमिकल मिले डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ के सेवन और हमारी विकृति पूर्ण जीवन शैली जैसे देर तक जागना , देर रात तक खाना या विभिन्न कारणों से तनाव में रहना आदि कारण से हमारे शरीर में मलो , आम या टोक्सीन का संचय हो जाता है। इसलिए विभिन्न रोग से पिडित साथ साथ स्वस्थ व्यक्तियों को भी समय समय पर पंचकर्म द्वारा अपने शरीर का शोधन जरुर करना चाहिए ।
जब भी दोष उत्कर्ष और उत्क्लेश अर्थात बढ़े हुए अवस्था में ही तो वमन, विरेचन आदी का प्रयोग कर सकते हैं , पर स्वस्थ व्यक्ति को वमन कर्म वसंत ऋतु में अर्थात मार्च - एप्रिल माह में , विरेचन कर्म शरद ऋतु अर्थात सितंबर - अक्टूबर में और वस्तिकर्म पावट ऋतु अर्थात जून माह के बाद और बरसात के पहले करना चाहिए।
पंचकर्म कितने प्रकार का होता है
पंचकर्म के पांच प्रकार होते हैं
1.वमन।
2.विरेचन।
3. बस्ति।
4. नस्य।
5. रक्तमोक्षण।
1.वमन पंचकर्म - वमन यानी उल्टी की दवाई देकर शरीर में दुषित हुआ कफ दोष मुख के मार्ग से बाहर निकालने को वमन कहा जाता है। दमा, एसीडिटी एलर्जी, त्वचा विकार, मोटापा, सर्दी इन विकारों में वमन चिकित्सा दी जाती है।
2. विरेचन पंचकर्म - दस्त लगाकर शरीर का बढ़ा हुआ पित्त गुदा मार्ग से बाहर निकाल देना इसे विरेचन कर्म कहते हैं। एसीडिटी, पीलीया , त्वचा रोग इन विकारों में विरेचन पंचकर्म दिया जाता है।
3. बस्ति पंचकर्म - वात, पित्त, कफ इन तीन दोषो में वात दोष सबसे प्रधान होता है। इस वात दोष को नियंत्रित करने हेतु बस्ति यह पंचकर्म चिकित्सा बहुत ही उपयोगी होती है। सभी प्रकार के वात के विकार , साधारण जोड़ों के दर्द से लेके साइटिका जैसे वात विकार बस्ति चिकित्सा से अच्छे हो जाते हैं।
4. नस्य पंचकर्म - गले के उपर की यानी नाक , कान ,गला , आंखें ,सिर इन सभी अवयवों में औषधि सिद्ध तेल या घी डालकर दुषित दोष शरीर के बाहर निकालना इसे नस्य कहते हैं। सर्दी, सिरदर्द, बाल झड़ना, गर्दन का दर्द होना , निद्रा नाश और हार्मोनल डिसआॕर्डर इन सबमें नस्य चिकित्सा की जाती है।
5. रक्तमोक्षण पंचकर्म - खुन में बढ़े हुए दोषों सिरा से यानी नस से शरीर के बाहर निकाल देना यानी थोड़ा सा खून बहा देना इसे रक्तमोक्षन कहते हैं।
पंचकर्म क्रिया कैसे की जाती है
1. वमन पंचकर्म विधि - सामान्यतः उल्टी होना यह किसी बिमारी का लक्षण होता है पर आर्युवेद इस पंचकर्म पद्धति में रोगी का रोग ठीक करने के लिए उसका स्वास्थ्य बेहतर करने के लिए औषधि देकर नियंत्रित स्वरुप में उल्टी कराई जाती है। ताकि रोगु का प्रकोपित कफ दोष बाहर निकल जाए और शरीर की शुद्धि हो जाए । वमन को अंग्रेजी मे therapeutic vomiting या emesis कह सकते हैं।
वमन कर्म करने के पुर्व वैद्य द्वारा रोगी का परिक्षण किया जाता है। वह प्रक्षण वमन के लिए है या नहीं , उसे क्या बिमारी है , उसकी पचन शक्ति कैसी है आदी देखा जाता है। सबसे पहले रोगी को प्रकृति के हिसाब से तीन दिन, पांच दिन या सांत दिन तक अभ्यंतर स्नेहपान यानी विशिष्ट मात्रा में घी और तेल का सेवन कराया जाता है। उसे शारीरिक श्रम कम करने की सलाह दी जाती है। तेल या घी का पाचन होने पर भुख लगने पर हल्का आहार लेने को कहा जाता है ।
साथ में गर्म पानी पीने को कहा जाता है आखिर के तीन या चार दिन को बाह्य स्नेहन यानी मसाज तेल से और स्वेदन यानी भाप दिया जाता है। वमन के पहले दिन उसे कफकर आहार जैसे दही, उड़द की खिचड़ी आदि खाने को दिया जाता है। जिस दिन मुख्य वमन कर्म किया जाता है रोगी को पूर्ण नींद लेने के बाद मल मूत्र विसर्जन होने के बाद जल्दी सुबह चिकित्सालय बुलाया जाता है। फिर वैद्य उसे मदन फल जैसे वामक औषधि गाय का दुध, गन्ने का रस , मुलेठी का काढ़ा पीलाकर वमन कराते हैं। उल्टियां बंद हो जाने पर व्यक्ति को घर भेजा जाता है।
इसके बाद संसर्जन क्रम का पालन करना पडता है। जब रोगी कौन भुख लगती है तब हल्के आहार से शुरू कर अगले बल के अनुसार आहार बढ़ाया जाता है। शुरुआत में सफेद राही, मुंग के दाल का पानी घी डालकर पिलाया जाता है। तत्पश्चात मुंग की खिचड़ी ,बाद में ज्वार की रोटी फिर सब्जी रोटी , दाल चावल इस तरह से आहार धीरे धीरे बढ़ाया जाता है। इस अवस्था का पालन बहुत ध्यान पुर्वा किया जाता है।
वमन क्रिया को पूर्ण करने के लिए 12 से 15 दिन का समय लगता है।
वमन पंचकर्म के लाभ
वमन पंचकर्म करने के बाद शरीर में कफज रोगो का नाश होता है और अस्थमा , एलर्जी, त्वचा रोग, एक्जिमा, सोरायसिस, अल्टिकिरीया , मुंहासे, रुसी, मोटापा, अपचन, कब्ज़ ,पेट फुलना , भुख न लगना, आलस्य आदि रोगों से राहत मिलती है। शरीर के के विषेले पदार्थ वमन क्रिया से बाहर निकल जाते हैं। नवज्वर , अतिसार , अधोग रक्त पित्त , क्षयरोग, ग्रंथि विकार, उन्माद, खास , श्वास, हुल्लास , स्तन्यदोष , त्वचा गत बिमारिया , उर्ध्व जन्नुगत रोग आदि की बिमारियों में वमन किया जाता है। वमन पंचकर्म से पाचनशक्ति बढ़ती है जिससे शरीर के धातु , रस , रक्त, रज्ज अच्छे और सर्वांग बनते हैं जिससे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
मधुमेह, कोलेस्ट्रॉल और उच्च रक्तचाप के रोगीयो को लाभ मिलता है। शरीर और मन प्रसन्न होते हैं। हर व्यक्ति को वसंत ऋतु में वमन पंचकर्म जरुर करना चाहिए।
2. विरेचन पंचकर्म विधि - शास्त्रोंक्त तरिके से आर्युवेदीक औषधि देकर शरीर को बड़े हुए पीत्त दोष को दस्त लगाकर शरीर के अधोमार्ग से बाहर निकालने की विधि को विरेचन कहा जाता है। विरेचन को purgation क्रिया कहा जाता है। विरेचन बच्चों से लेकर बुढो तक प्रकृति के अनुसार, शरीर बल के अनुसार, अवस्था के अनुसार आर्युवेदिक वैद्य के मार्गदर्शन में आप विरेचन ले सकते हैं।
विरेचन को तीन हिस्सों में किया जाता है पूर्व कर्म, प्रधान कर्म एवं पश्चात कर्म।
विरेचन के पूर्व कर्म मे तीन, पांच या सात दिनो तक आर्युवेदिक औषधि , घी या तेल या इन दोनों को एकत्र कर मात्रा बढ़ाते हुए गर्म पानी के साथ रोगी को पिलाया जाता है। इसे अभ्यंतर स्नेहपान कहा जाता है। इस क्रिया से जठर एवं आतडो का स्नेहन होकर विरेचन द्वारा शरीर के बाहर निकालने में मदद मिलती है। तेल और घी का पाचन होने पर लघु आहार दिया जाता है। आखिर के तीन या चार दिन में रोगी को बाह्य स्नेहन और स्वेदन यानी स्टिम बाथ दिया जाता है।
विरेचन का प्रधान कर्म - अगले दिन सुबह तेल से मसाज करके वैद्य के सलाह अनुसार रोगी को विरेचन के लिए दवाई दी जाती है। उसके कुछ देर पश्चात विरेचन दस्त शुरू होते हैं। शरीर के संचित पित्त दोष एवं प्रकृति के अनुसार दोष बाहर निकालने के पश्चात दस्त बंद हो जाता है। जुलाब शुरू होने पर पहले मल बाहर निकलता है फिर पित्त और बाद में कफ निकलता है।
विरेचन का पश्चात कर्म यानी संसर्जन क्रम - विरेचन होने के बाद संसर्जन क्रम शुरू होता है अर्थात पहले पतले आहार से शुरू कर धीरे घने आहार पर लाया जाता है। रोगी की पचन शक्ति कमजोर होने की वजह से संसर्जन क्रम का पालन करना बहुत जरूरी होता है। जैसे शुरुआत में मुंग के दाल का पानी दिया जाता है। मुंग की खिचड़ी दी जाती है। फिर ज्वार की रोटी इस तरह आहार को बढ़ाता जाता है। संसर्जन क्रम बहुत महत्वपूर्ण हौता है।इसका पालन करना बहुत जरूरी होता है।
विरेचन के लिए वैध त्रिवृत आंवले का रस , अभयादी मोदक, ऐरण्डी का तेल , आरग्वद आदि द्रव्य रोगी के प्रकृति अनुसार उपयोग करते हैं।
विरेचन का प्रयोग विशेष रूप से पित्त की व्याधियो में होता है। कामला यानी जाॕइंडीस , अम्लपित्त, ज्वर , सिरदर्द, त्वचा विकार, उच्च रक्तचाप, उर्ध्व रक्तपित्त, हाई कोलेस्ट्रॉल, बाल सफेद होना, मौटापा आदि बिमारियों में विरेचन से फायदा होता है। इसके अलावा कइ ऐसी बिमारिया है जिनसे विरेचन से फायदा हो सकता है। वागभट्ट आचार्य ने अपने ग्रंथ अष्टांगहृदयम् में लिखा है कि बवासीर , प्रमेह , सिरदर्द , अनीमिया, फोड़ा होना , चेहरे या शरीर पर काले धब्बे होना , मुंह के छाले , पीलिया, यकृत रोग , जलोदर , स्प्लीन का बढ़ना , जीर्ण ज्वर उल्टी , जीर्ण विषाक्तता, अंगों में जलन , पेट में किसे होना , गाॕउट , दमा , अपचन , उन्माद, अपस्मार जैसे मानसिक व्याधि , योनि दोष , शुक्र दोष , कब्ज़ , पेट दर्द , आलस , थकान, कमजोरी, अनिद्रा, अतिनिद्रा आदी विकारों में विरेचन देना चाहिए।
जिस तरह मैले कपड़े पर अगर हम रंग चढ़ाएं तो वह ठीक से नहीं चढ़ता उसी तरह शरीर शुद्धि किए बिना दवाईयों का शरीर पर ठीक से असर नहीं होता। इसलिए सर्वप्रथम शरीर शुद्धी अवश्य करें। शरीर शुद्धी का एक फायदा यह भी है कि इसके पश्चात दवाईयों की जरूरत नहीं लगती है या कम लगती है। की बार बिमारिया अपने आप ठीक हो जाती है।
प्रत्येक व्यक्ति को हर साल शरद ऋतु यानी सितंबर - अक्टूबर में विरेचन जरुर देना चाहिए। विरेचन क्रिया को पूर्ण करने में 10 से 15 दिन का समय लगता है। इसमें कोई रुकावट नहीं आए इसलिए रोगी ने अपने ड्युटी टाईम टेबल उस तरह से एडजस्ट करना चाहिए। इस दौरान बाहर गांव भी नहीं जाना चाहिए ताकि पूर्ण लाभ मिल सके। विरेचन बच्चों से लेकर बुढो तक कोई भी ले सकता है। इसके लिए डाॕक्टर की सलाह लेनी चाहिए।
3. बस्ति पंचकर्म विधि - बस्ति पंचकर्म चिकित्सा की मुख्य चिकित्सा मानी जाती है। बस्ति का अर्थ होता है गुदा मार्ग द्वारा औषधि द्रव्य बड़ी आंत में डालना। इस द्रव्य को पुनः गुदा द्वारा ही शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। जिससे आंतों से मल पुर्ण रुप से साफ हो जाता है और दुषित वात , पित्त ,कफ दोषों की शुद्धि हो जाती है।
आर्युवेद शास्त्र में बस्ति के की प्रकार बताए गए हैं। जिसमें बस्ति के घटक द्रव्यों के अनुसार प्रकार होते हैं , उपयोग के अनुसार प्रकार , बस्ति के मात्रा के अनुसार प्रकार किए गए हैं।
इस पोस्ट में हम बस्ति के तीन मुख्य प्रकार निरुह , अनुवासन , उत्तर बस्ति की के बारे में जानेंगे।
निरुह बस्ति - निरुह वस्ति को आस्थापन बस्ति भी कहते हैं। इसमें औषधि काढ़ा , सेंधानमक, शहद , वनस्पति चुर्ण और तेल होता है। इसे देने के पश्चात करीब 15 से 30 मिनिट में ही बस्ति द्रव्य शरीर के बाहर आ जाता है। साथ में मल , वायु , कफ और पित्त भी बाहर आ जाते हैं। यह बस्ति आयु को बढ़ाने वाली होती है। इसलिए इसे आस्थापन बस्ति कहते हैं।
अनुवासन वस्ति - इसमें तिल तेल या औषधि सिद्ध तेल गुदा द्वारा शरीर के भीतर दिया जाता है। मात्रा बस्ति इसका एक अलग प्रकार है। यह तेल शरीर में 10 से 15 घंटों तक रखना आवश्यक होता है। यह बस्ति खाना खाने के तुरंत बाद दी जाती है। इसके अलावा बस्ति का एक और प्रकार भी माना जाता है जिसे उत्तर वस्ति कहा जाता है। यह शरीर के उत्तर भाग से याने मुत्र मार्ग में दी जाती है और महिलाओं में गर्भाशय में भी दी जाती है। गर्भाशय और मुत्र मार्ग के विकारों में उत्तर बस्ति का उपयोग किया जाता है।
बिहार व्यक्ति वैद्य की सलाह से उत्तर बस्ति का उपचार ले सकता है। लेकिन हर स्वस्थ व्यक्ति ने वर्षो ऋतु यानी बारीश के मौसम में 8 दिन का बस्ति का उपचार जरुर देना चाहिए। बस्ति का उपचार का सही समय वर्षा ऋतु माना जाता है। इसमें बस्ति लेने से वात से होने वाली बहुत सी बिमारियों से हम बच सकते हैं।
बस्ति चिकित्सा देने से पूर्व रोगी की प्रकृति एवं योग्यता , अयोग्यता का परीक्षण चिकित्सक द्वारा किया जाता है। उसके बाद उसे कौनसी बस्ति देनी है एवं उसकी मात्रा कितनी होनी चाहिए इसका निर्धारण किया जाता है। इसके पश्चात रोगी के अनुसार औषधीयो का निर्माण किया जाता है। रोगी को पुरे शरीर में तेल लगाकर मालिश की जाती है और स्नेहन , स्वेदन किया जाता है। स्टिम दी जाती है। उसके बाद में चिकित्सक या योग्य प्रशिक्षक द्वारा वामपार्श्व स्थिति में रोगी को लेटाकर रबर की ट्युब , सिरींज या एनिमा पाॕट की सहायता से बस्ति दी जाती है।
अलग अलग व्याधि के अनुसार बस्ति का प्रकार एवं मात्रा बदल सकती है।
बस्ति पंचकर्म के लाभ
बस्ति चिकित्सा वात दोष की प्रधान चिकित्सा होती है। इसके कारण वात से संबंधित सभी बिमारियां जैसे शरीर के अलग अलग अंगौ में दर्द होने पर बस्ति उपयुक्त होती है। सरदर्द, सायटिका , गर्दन के दर्द में , सर्वाइकल या स्पोंन्डीलोसीस मे बस्ति से काफी राहत मिलती है। बस्ति के पूर्ण कोर्स से इन तक़लिफों में राहत मिलती है। कब्ज़, मुत्र विकार, पुरुषों में शुक्राणु की समस्या, महिलाओं में महावारी से जुड़ी समस्याए , बदन दर्द , पेट फुलना , पेट दर्द, कमर दर्द आदि वात विकार। इसके अलावा कई बिमारिया ऐसी है जिनकी एक मात्र मुख्य चिकित्सा बस्ति है।
हमें साल में एक बार बस्ति कर्म जरुर करना चाहिए क्योंकि बस्ति को वात शामक कहा जाता और आर्युवेद में हर बिमारी की जड़ वात को बताया गया है। वात से ही पित्त और कफ जुड़े होते हैं। आर्युवेद में कफ और पित्त को पंगु कहा गया है और वात उन्हें जहां ले जाता है वहां वह व्याधि उत्पन्न करते हैं। इसलिए अगर वात की चिकित्सा की जाए और उसे संतुलित अवस्था में लाया जाए तो हमारी आने से ज्यादा बिमारिया ठीक हो जाती है। महिलाओं के लिए बस्ति चिकित्सा काफी महत्वपूर्ण होती है क्योंकि उन्हें दिनभर काम करना पड़ता है। ऐसे में उन्हें गर्दन से लेकर कमर तक दर्द होता रहता है।
अगर बच्चे की प्लानिंग करने के पूर्व माता पिता दोनो बस्ति का कोर्स कर लेते हैं तो वह एक स्वस्थ संतान को जन्म देते हैं। यह चिकित्सा आप किसी प्रशिक्षित वैद्य की देखरेख में ले।
4. नस्य पंचकर्म विधि - नस्य यह पंचकर्म के अन्तर्गत आने वाली एक सरल और उपयुक्त चिकित्सा पद्धति है। इस चिकित्सा पद्धति में नाक के द्वारा औषधि से बनाया हुआ तेल , घी शरीर में पहुंचाया जाता है। सभी पंचकर्म पद्धति में से नस्य यह सबसे सरल परंतु सबसे असरदार है। आर्युवेद में नाक को मस्तिष्क का प्रवेश द्वार कहा गया है। मस्तिष्क द्वारा जुड़ी बिमारियों में नाक के द्वारा औषधि डाली जाती है। नस्य कर्म को आर्युवेद में सिरो विरेचन भी कहा जाता है।
आयुर्वेद में नस्य के शमन नस्य , शोधन नस्य और बृहण नस्य ये नस्य के तीन प्रकार बताए गए हैं। इसके अलावा प्रधमन नस्य , मर्ष नस्य और प्रतिमस्य नस्य यह भी प्रकार बताए गए हैं।
नस्य के लिए लिए जाने वाले द्रव्य - तेल वात शामक होता है। बिमारी के अनुसार अलग अलग तेल उपयोग में लिया जाता है। जैसे अनु तेल , षडबिंदु तेल , पंचेन्द्रिय वर्धण तेल , वाचादी तेल इत्यादि पित्तज या पित्त से अनुबंध बिमारियों में घृत अर्थात शूद्ध घी मुलेठी का घी , ब्राम्ही घृत , केशर घृत इत्यादि घृत दिया जाता है। किसी विशिष्ट बिमारी में वनस्पति चुर्ण या स्वरस निकालकर नाक में डाला जाता है। जैसे दुर्वा रस , वाचादी स्वरस आदी।
नस्य कर्म स्वस्थ व्यक्ति और बिमार व्यक्ति दोनों में किया जाता है। बिमार व्यक्ति में नस्य कर्म के पहले वैद्य रोगी की प्रकृति व रोग के अनुसार औषध का निर्धारण करते हैं। इसके पश्चात व्यक्ति का स्नेहन वह रोग के अनुसार औषध का निर्धारण करते हैं। इसके पश्चात व्यक्ति का स्नेहन एवं स्वेदन किया जाता है। सिर , कान , गर्दन आदि पर तेल की मसाज कर भाप दी जाती है। जिससे चिपके हुए दोष पतले होकर शरीर से बाहर निकालने में आसानी होती है।
नस्य कर्म करने के लिए व्यक्ति के सिर को पिछे झुकाकर लिटाया जाता है। फिर चिकित्सक द्वारा दोनों नाक छिद्रों में औषधि सिद्ध तेल या घी गुनगुना कर डाला जाता है। अगर औषधि चुर्ण के रूप में हो तो इसे नली के माध्यम दे से नाक में पहुंचाया जाता है। व्यक्ति को निर्देश दिए जाते हैं की वह औषधि नाक है खिंच ले और गले में आई हुई औषधि मुंह के द्वारा बाहर निकाल दे या गर्म पानी से कुल्ला कर लें। नस्य करने के बाद रोगी को 5 से 10 मिनिट तक सिर के बाजु निचे होकर लिटाया जाता है।
नस्य पंचकर्म करने के बाद आपको थंडी हवा , थंडा पानी या थंडी जगह से परहेज़ करना चाहिए।
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नस्य पंचकर्म लाभ
नस्य पंचकर्म द्वारा उर्ध्वतुंजनित विकार अर्थात नाक , कान , आंख , गला आदि का कार्य सुचारू रूप से होने लगता है। नाक , कान , आंख , गला , कंधा आदि की ताकत बढ़ाने के लिए , गर्दन की उपर की बिमारियों के लिए नस्य विशेष उपयुक्त होता है।
पुरानी सर्दी, साइनस , दंतरोग , मसुडो के प्रोब्लम , मत्स्यास्तंभ , फ्रोजन सोल्डर , अदिति , गलगंड , थाइरोईड , टाॕन्सिल , अपस्मार , उन्माद, बालों की समस्याएं , मस्तिष्क विकार , अर्धसीसी , सिर भारी लगना , लकवा , याद्दाश्त कमजोर होना , व्यंग , स्वर भेद , बोलने से संबंधित बिमारिया आदि में ये काफी कारगर है। कफ की बिमारियों में नस्य कर्म काफी फायदेमंद होता है। नस्य कर्म से श्वास नली में संचित कफ बाहर निकलने में मदद मिलती है। नस्य कर्म हमारी इन्द्रियों को दृढ़ता और बल प्रदान करता है।
नियमित रूप से नस्य करने से मुख की कांति बढ़ती है। व्यक्ति की आवाज स्निग्ध और स्थिर होती है। जिन व्यक्तियों को सायंस या बार बार सर्दी की वजह से नाक बंद होने की समस्या होती है उन्हें आजकल आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में नेजल ड्रोप या स्प्रे दिया जाता है। जिनसे शुरुआत में तो काफी राहत मिलती है पर धीरे धीरे उनकी आदत हो जाती है। एक वक्त ऐसा आता है की वे असर करना कम करते हैं। जिससे उनका डोज बढ़ाना पड़ता है एवं उसके दुष्परिणाम होते हैं अलग।
स्वस्थ व्यक्ति यदी नियमित रूप से नस्य करता है तो उसके त्रिदोष सम अवस्था में रहते हैं। जिससे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
5. रक्तमोक्षण पंचकर्म विधि - स्वास्थ्य अच्छा पाने के लिए और बिमारियों से छुटकारा पाने के लिए आर्युवेद में रक्तमोक्षण यह उपयुक्त चिकित्सा बताई गई है। आर्युवेद में रक्तमोक्षण चिकित्सा आचार्य सुश्रुत की एक देश है । उन्होंने रक्तमोक्षन चिकित्सा उनके ग्रंथो में बताया था। आर्युवेद में रक्तमोक्षण को अर्ध चिकित्सा भी बताया गया है। रक्तमोक्षन दो तरह से किया जाता है सार्वदेहिक रक्तमोक्षन और स्थानिक रक्तमोक्षन ।
सार्वदेहिक रक्तमोक्षन यह नीडल की मदद से नजदीकी सिरा से किया जाता है। एक बार में करीब करीब 50 से 100 मि. ली. रक्त निकाला जाता है।
स्थानिक रक्तमोक्षन में जलौका से या सिरींज या कप की मदद से किया जाता है। स्वस्थ व्यक्ति को हर साल शरद ऋतु लगने पर सितंबर -। अक्टूबर में चिकित्सक द्वारा रक्तमोक्षन कराना चाहिए। बच्चों है लेकर बुढो तक कोई भी रक्तपित्त जन्य बिमारी तथा अच्छे स्वास्थ्य के लिए रक्तमोक्षन कर सकते हैं।
रक्तमोक्षन बिमारी की अवस्था के अनुसार किया जाता है। जिसका रक्तमोक्षन करना है वह खाली पेट ना रहे। उसे खाना खाया हुआ होना चाहिए।
रक्तमोक्षन के लाभ
रक्तमोक्षन प्रायः उन बिमारियों में किया जाता है जिनमें वात, पित्त और कफ दोषों से रक्त दूषित हुआ होता है। खासकर उन बिमारियों में जिनमें जलन या ठनक हो उनमें रक्तमोक्षन करना काफी लाभदायक होता है। इसके अलावा त्वचा रोग मुंहासे, दाद , नागिन, बार बार फोड़े आना या फुन्सियां होना , रक्त का जम जाना , गाउट में युरिक एसिड बढ़ जाना , मानसिक विकार , घुटने का दर्द , लिवर और स्प्लीन में सुजन , हाथ पैर को त्वचा में क्रेक्स पड़ना , पिलिया , मुंह के छाले, एंडी का दर्द, शीत पीत्त, माइग्रेन , उच्च रक्तचाप, गुदा मार्ग में होने वाले जख्म जैसी बिमारियों में रक्तमोक्षन काफी लाभदायक होता है।
सावधानी - रक्तमोक्षन कराते वक्त चिकित्सक आपकी हिमोग्लोबिन ठीक है या नहीं वो चेक कर सकता है। रोगी डरा हुआ या दुर्बल ना हो। गर्भावस्था के दौरान रक्तमोक्षन नहीं करना चाहिए।
पंचकर्म से क्या लाभ होता है
पंचकर्म आपके शरीर से दुषित दोषों को, असंतुलित दोषों को बाहर निकालता है। इससे व्याधि ठीक होकर स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है। पंचकर्म आपके शरीर और दिमाग से विषाक्त पदार्थ को बाहर निकालता है। आपके शरीर को पुरी तरह से स्वस्थ करता है। शरीर के सभी दुषित विषाक्त पदार्थ बाहर निकल जाने से इंन्द्रिया , मन , बुद्धि एवं रुप और रंग अच्छा होता है। बल और वीर्य की वृद्धि होने से पौरुष शक्ति बढ़ती है। दिर्घायु की प्राप्ति होती है।
पंचकर्म आपके रोगप्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करता है। शरीर में लोगों से लडने की शक्ति बढ़ती है। पंचकर्म आपकी बढ़ती उम्र को रोकता है। बुढापा दैर से आता है। बाल सफेद होना, झुर्रियां होना, रोशनी कम होना ये सब देरी से होता है। भुख बढ़ती है जिससे सप्तधातु रस , रक्त, मास , भेद , अस्थी , मज्जा , शुक्र ये सब सारवान बनते हैं।
निष्कर्ष
में आशा करता हूं कि पंचकर्म चिकित्सा क्या है, प्रकार, विधि, लाभ, ये आपके समझ में आ गया होगा। तो आप जरूर अपने वैद्य की सलाह से पंचकर्म के लाभ लिजिए। आप भी हर साल पंचकर्म कीजिए। अगर आपको ये पोस्ट अच्छी लगी है तो इसे अपने दोस्तों को जरूर शेयर करें।
FAQ
पंचकर्म चिकित्सा का खर्च कितना है
पंचकर्म चिकित्सा के लिए एक दिन का 6000 रुपए खर्च आता है । इसमें आपको कम से कम पांच दिन का रजिस्ट्रेशन करना होता है। क्योंकि कोई भी समस्या है तो वह एक या दो दिन में फ़र्क नजर नहीं आता है। पांच दिन लगातार वहां रहेंगे , सारी थेरेपी सिख लेंगे तो घर जाकर भी आप कर सकते हैं। मड