कुंडलिनी यद्यपि भले ही शक्तीशाली हो तो भी उसके स्थान का वर्णन हठयोग के ग्रंथों मैं मिलता है। हम सब लोगों में वह शक्ति सोई हुई अवस्था में रहती है मुलाधार चक्र में कंद में , योनि या त्रिकोण नाम का अंग होता है वहीं कुंडलिनी का स्थान होता है।
इसका वर्णन शिवसंहिता में इस प्रकार किया गया है -
गुलाद् व्दयंगुलतच्श्रोध्र्य मैढैकांगुलतस्त्वधः। एवं चास्ति समं कंद समता चतुरंगलमं।।
- शिवसंहिता
पश्चिमामिमुख योनिः गुदमेद्रांतरालगा।
तंत्र कंद समारख्यातं एक कुंडली सदा।।
संवेष्टय संकरा नाडीः सार्धत्रिकुटिलाकृतिः।
मुकेश निवेश्य सा पुच्छं सुषुम्णाविवरे स्थिता।
अर्थात - गुदा से दो अंगुल ऊपर और जननेन्द्रिय से एक अंगुल नीचे चार अंगुल लंम्बा चौड़ा कंद विद्धमान होता है। उसी को योनि शब्द से कहते हैं। उसमें कुंडलिनी साढ़े तीन फेरे लगाकर सुषुम्ना नाड़ी के नीचे के छोर को अपने मुंह में पकड़कर सुप्त रहती है।
दर्शनोपनिषद में कंद को त्रिकोण शब्द से कहा है -
त्रिकोणं मनुजानां तु सत्यमुक्तं ही सांकृते।
गुदान्तु व्दयंगुलादूध्र्व मेद्रान्तु व्दयंगुलादधः।।
दर्शनोपनिषद्
अन्य ग्रंथों में भी कंद का विस्तार से वर्णन मिलता है। इन सभी वर्णोनो से ऐसा कह सकते हैं की हमारे शरीर में मेरुदंड के नीचे कमर के हिस्से में जो एक त्रिकोणाकृति हड्डी है, जिसको अंग्रेजी मे सेंक्रम कहते हैं, वही हठयोग ग्रंथों में वर्णित ' कंद ' है। उसका नीचे का छोर मुलाधार चक्र में होता है। इस ' त्रिकोण ' का उल्लेख करते हुए कुंडलिनी के स्थान का विस्तृत तथा निश्चित वर्णन षट् चक्र निरुपम में इस प्रकार किया गया है।
व्याख्या वक्त्रदेशे दिलसति सत्यं कर्णिका मध्यसंस्थं
कोण तत् त्रेपुराव्यं तडिदिव विलसत्कोमलं कामरुपम्।
कंदर्पो नाम वायुर्निवसति सततं तस्य मध्ये समन्ताज्जीवेशो।
बंधुजीव प्रकरमभिहसन् कोटी सूर्य प्रकाशः।।
षट् चक्र निरुपम अर्थात - वज्रा नाडी के आरम्भ में मुलाधार चक्र में त्रिकोण होता है। उसमें कंदर्प नाम का वायु होता है। इस त्रिकोण में स्वयंम्भु लिंग होता है, उसका वर्णन अगले 9 वे श्लोक में किया गया है। ' सेक्रम ' के नीचे जो रीढ की अंतिम तीन हड्डियां एक दुसरे से जुड़ी होती है, जिसको अंग्रेजी मे " काक्सीक्स " कहते हैं, शायद स्वयंभे लिंग का तात्पर्य उसी काॕक्सी क्स से है, ऐसा कह सकते हैं।
कुंडलिनी क्या है
कुंडलिनी क्या है ये ग्रंथों में वर्णित श्लोक से जानते हैं -
प्रथम किसलायाकाररुपः स्वयंम्भू।
विद्युत्पूर्णेदुबिंब प्रकरकरचयस्निग्ध संतानहासी काशीवासी दिलासा विलसत्ति सरिदावर्तरुपप्रकारः।। (षट् चक्र निरुपम)
अर्थात - त्रिकोण में तप्त सुवर्ण के समान कान्ति मान, श्यामवर्ण, पीछे की ओर मुख किया हुआ स्वयंम्भु शिवलिंग होता है। इस शिवलिंग के के उपर कुण्डलिनी साढ़े तीन फेरे लगाकर सोई हुई रहती है, यह स्पष्ट रीति से अगले श्लोक में कहीं है।
तस्ययोध्र्वे विसतंतुसोदरल सत्सूक्ष्मा जगन्मोहिनी।
ब्रम्हाव्दारमुखं मुखेन मलर संछादयन्ती स्वयम्।
शंखावर्तनिभा नवीनचपलामाला दिलासास्यदा
सुप्ता सर्प समा शिवोपरि लसत्सार्धत्रिवृत्ताकृतिः
अर्थात - उस स्वयंम्भू लिंग के उपर सुषुम्ना नाड़ी का छोर अपने मुंह में लेकर साढ़े तीन फेरे लगाकर कुंडलिनी सोई हुई रहती है।
कुंडलिनी का सुप्त अवस्था के कारण मनुष्य के चित्त में अज्ञान व्याप्त है। कुंडलिनी शक्ति को जगाने से वह अपना कुटिल रुप त्याग कर सरल हो जाती है और सुषुम्ना के मध्यमार्ग से उपर की ओर अग्रसर होती है। उसकै मार्ग में विद्धमान चक्रों का भेद करते हुए जब वह सहस्त्रार चक्र में स्थित परमशिव के साथ एकरुप होती है तब साधक को समाधि की अवस्था में परम ज्ञान होता है। इसका समग्र वर्णन योग के अनेक ग्रंथों में उपलब्ध है। केवल कुम्भक, अर्थात इच्छा के अनुसार कितनी भी देर तक श्वसन क्रिया को रोकने की शक्ति होना , यह कुंडलिनी शक्ति के जागृत होने का लक्षण है।
कुंडलिनी महाशक्ति की वैज्ञानिक व्याख्या
कुंडलिनी शक्ति को अच्छी तरह समझने के लिए श्वास क्रिया और सुषुम्ना शीर्षक ( मेंडुला आफ लौंगलेटा ) का विस्तृत अध्ययन आवश्यक है। पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी तक इतना ही जान पाए है की नाक से ली हुई सांस गले से होती हुई फुफ्फूसों ( फेंफडो ) तक पहुंचती है। फेंफड़ों के छिद्रों में भरे हुए रक्त को वायु शुद्ध कर लेती है और रक्त परिसंचालन की गतिविधि शरीर में चलती रहती है।
किन्तु प्राणायाम व्दारा श्वसन क्रिया को बंद करके भारतीय रोगियों ने यह सिद्ध कर दिया है कि चेतना जिस प्राण - तत्व को धारण किए हुए जीवित है, उसके लिए श्वास क्रिया आवश्यक नहीं सांस ली हुई हवा का स्थुल भाग ही रक्त शुद्धि का काम करता है, उसका शुक्ष्म भाग सुषुम्ना शीर्षक में अवस्थित इड़ा और पिंगला नाड़ियों के माध्यम से नाभि कंद स्थित चेतना को उद्दीप्त किये रहता है। गोरक्ष पद्धति के श्लोक 48 में इस क्रिया को शक्तिशालीनी महामुद्रा, नाडी शोधन आदी नाम दिए हैं और लिखा है कि सामान्य अवस्था में इड़ा और पिंगला नाड़ियों का शरीर की जिस ग्रंथि या इंद्रिय से संबंध होता है।
मनुष्य उसी प्रकार के विचारों से प्रभावित होता रहता है, इस अवस्था में नाड़ियों का अपना कोई क्रम नहीं होता । किंतु जब विशेष रूप से ( प्राणायाम ) से प्राणवायु को धौंका जाता है तो इड़ा और पिंगला सम स्वर में प्रवाहित हौने लगती है। इस अवस्था के विकास के साथ साथ नाभि कंद के प्रकाश स्वरुप गोला भी विकसित होने लगता है। उससे प्राण शक्ति का विद्युत शक्ति के समान निसृण होता है, चुकी सभी नाड़िया इसी भाग से निकलती है, इसलिए वह इस ज्योति गोले के संस्पर्श में होती है। सभी नाड़ियों में वह विश्व व्यापी शक्ति झरने से सारे शरीर में वह तेज " ओजस " के रुप में प्रकट होने लगता है। इन्द्रियों में वही बल के रूप में, नेत्रों में चमक के रूप में परिलक्षित होता है।
इस प्राण शक्ति के कारण प्रबल आकर्षण शक्ति पैदा होती है। यह शक्ति नाभि प्रदेश में प्रस्फुटित होती है और चुंकि कटि प्रदेश में इसी के समीप है, इसलिए वह भाग अधिक शाघ्र और तेजी से प्रभावित होता है। इसलिए यौन शक्ति केंद्रों को नियंत्रण में रखना अधिक आवश्यक होता है। साधना की अवस्था में इसीलिए संयम पर अधिक जोर दिया जाता है, जिससे कुंडलिनी शक्ति का फैलाव ऊध्र्वगामी हो जाए। उसी से जो की वृद्धि होती है। वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर निकल आए हैं कि शरीर में विभिन्न ज्ञानेन्द्रियो के केन्द्र स्थुल इंन्द्रिया नहीं वरन् उससे भी सूक्ष्म और संवेदनशील कोई स्थान शरीर में है, जिन्हें न तो मंत्रों के व्दारा पकड़ा जा सकता है और न स्थुल आंखौ से देखा जा सकता है। ये अत्यंत शक्तिशाली , महत्वपूर्ण और अनेक रहस्यों से परीपुर्ण है । शरीर पिण्ड में उसके जीवकोश , रसायन हार्मोन, जीन्स आदि की अपनी सुविस्तृत व्यवस्था है। यहां उसका उल्लेख संभव नहीं है। चर्चा मात्र मेरूदंड की और उसके दोनों सिरों की ( पोल्स ) की हो रही है। यह क्षेत्र समग्र काया की तुलना में बहुत छोटा होते हुए भी इतना महत्वपूर्ण है।
कुंडलिनी जागरण कैसे करे
कुंडलिनी जागृती धीरे धीरे घटीत होने वाली क्रिया है। कुंडलिनी शक्ति एक एक चक्र है होते हुए सहस्त्रार चक्र पहुंचती है इसलिए कुंडलिनी जागृति में कम से कम एक महिने से लेकर छं महिने तक नियमित ध्यान और संतुलित दिनचर्या को अपनाना पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य में कुंडलिनी शक्ति सुप्तावस्था में मुलाधार चक्र में स्थित होती है। आप ध्यान और योग के माध्यम से इस शक्ति को जागृत कर सकते हैं। कुंडलिनी शक्ति जागृत होने पर क्रमशः मुलाधार, स्वाधिष्ठान, मनिपुर, अनाहत, विशुद्धी, आज्ञा और सहस्त्रार चक्र का भेदन कर परमेश्वर से एकाग्रता प्रदान कराती है।
कुंडलिनी शक्ति जागृती के लिए कोई विशेष ध्यान नहीं होता। चित्त को एकाकार करना ही कुंडलिनी जागरण में उपयुक्त ध्यान है। उर्जा या प्राणशक्ति एक विशेष नियम हैं। आपका चित्त या फिर ध्यान जहां जहां जाता है वहां उर्जा प्रवाह होने लगती है। अगर आप अपने चक्रों पर निचे से उपर तक चित्त को ले जाते हैं तो आपकी कुंडलिनी भी एक एक चक्र से होते हुए उपर उठती है। जिसके लिए ब्रम्ह मुहूर्त में उठकर बैठ जाएं। प्रधान तो अपने चित्त को सांसों पर केन्द्रित करें। इसके बाद धीरे धीरे चित्त सांसों से हटाकर मुलाधार चक्र पर ले जाएं। मुलाक़ात चक्र पर ही कुंडलिनी शक्ति का निवास होता है।
यहां कल्पना करें कि आप अपनी शक्ति को उपर उठा रहे हैं। धीरे धीरे चित्त को रिढ की हड्डी से होते हुए मुलाधार चक्र से स्वाधिष्ठान चक्र पर ले आएं। कल्पना करें कि आप अपनी कुंडलिनी को धीरे धीरे उपर उठा रहे हैं। इसके बाद एक एक चक्र से होते हुए चित्त को सहस्त्रार चक्र पर स्थिर करें। सहस्त्रार चक्र पर कम से कम 15 मिनट बिना कोई विचार करे ध्यान करना है।
कुंडलिनी जागरण के बाद क्या होता है
कुंडलिनी जब जागती है तब मानो कोई नक्षत्र उलट पड़ा हो या चहुं ओर तेज के बीज में से अंकुर फुटेज हो, वैसी ही शक्ति गिन्नी को छोड़ कौतुक से अंगड़ाई लेती हुई, नाभि स्थान पर दिखाई देती है। अनंत तुफान शांत होते हैं। शरीर की सभी वासनाएं मिट जाती है। वह जलतत्व, पृथ्वीतत्व एक मे सानती है। संताप मिटा देती है। पहले ही उसे बहुत दीनो की भुख लगी रहती है जिस पर जमाने का मिस हो जाता है। इसलिए वह आवेश से ठीक उपर की ओर मुंह फाड़ती है। हृदय कमल के नीचे जो पवन भरी रहती है वह सबको चपेट लेती है। उपर - नीचे मुंह की ज्वाला फैलाकर मांस के कौर खाने दौड पड़ती है।
तदनंतर एक - दो कौर हृदय के भी भर लेती है, फिर तलुआओ और हथेलियों का भी भेद करती है। इस प्रकार वह हर एक अवयव की गांठों की खोज लेती है। अधोभाग भी नहीं छोड़ती , वरन ना का भी सत्व निकाल लेती है और त्वचा को धोकर हड्डी के ढांचे से जोड़ देती है। हड्डियों की नलियों का रस निकालती है, नसों के जाले धो डालती है, जिससे रोममूलों की बाह्य - वृद्धि बंद हो जाती है। नाक के छेदों मैं से जो हवा बाहर अंगुल तक निकालती है उस घिंचिया कर पिछे हटा वहां फिर भीतर घुसती है तब नीचे की वायु उपर चढ़ती है और उपर की नीचे उतरती है, और जिस समय दोनों का मिलाप होता है तो चक्रों केवल क पुर्जे ही बचते हैं।
और तब तृप्त हो सुषुम्ना नाड़ी के पास शांत हो रहती है और उससे जो गरल मुंह से उगलती है उस अमृत से प्राणवायु जीवन धारण करती है। भीतर से वह विष अग्निरुप हो निकलता है, परंतु सबाह्य शीतल करने लगती है। तब कहीं गले हुए अवयव दृढ़ होने लगते हैं । शरीर में कांती अवतार लेती है और उपर से त्वचा रुपी ओढ़नी ओढ़ लेती है। कृतांत भी उस देहकृती से भय खाता है। वर्धक के पीछे हटता है यौवन की गांड़ खुल जाती है और लुप्त हुई बाल दशा फिर प्रकट होती है। उससे आयु भी छोटी दिखाई देती है। वास्तव में उसके धैर्य की निरुपम महीमा बढ़ जाती है।
उस शरीर में ऐसे नये और उत्तम नगर निकलते हैमानो सुवर्ण वक्ष के पल्लो में लिप्त नुतन रत्नों की कलीया निकली हो। दांत भी ने हो जाते हैं। परंतु बहुत छोटे छोटे होते हैं। मानो दो तरफा कीलों की पंक्तियां बैठी हो। मानिक के कण जैसे सहज, नोकदार होते हैं वैसे ही शरीर पर रोमो की नोकें उगती है। हथेलियों और तलुवे रक्तकमल के समान हो जाते हैं, नेत्र स्वच्छ हो जाते हैं। शरीर भी सुवर्ण सा हो जाता है, परंतु वह वायु का लघुत्व रखता है, क्योंकि उसमें पृथ्वी और जल तत्व के अंश नहीं रहते। वह जल पर चले तो उसके तलवे नहीं भिगते। उसे अनेक सिद्धीया प्राप्त होती है। प्राण का हाथ पकड़, हृदयाकाश की सीढ़ी बनाकर सुषुम्ना नाड़ी के जीने से हृदय कुंडली खुल जाती है।
कुंडलिनी जागरण के लक्षण
कुंडलिनी शक्ति जागृत होने पर मुलाधार क्षेत्र में कंपन होने लगता है। अपने आप प्राणायाम होने लगता है। शरीर को स्वतः ही बोध करने लगता है। जैसे ही साधक शांत होकर बैठता है वैसे ही योगिक क्रियाए शुरू हो जाती है। शरीर कांपने लगता है, अनायास ही रोमांच पैदा हो लगता है। कभी हास्य कभी रुदन बिना किसी बाहरी ज्ञान के बंध और मुद्राएं करने लगती है। स्वतः ही केवल कुंभक लगने लगता है।
जब आप श्वास लेते हैं तो आपको लगता है कि आपकी श्वास मुलाधार क्षेत्र तक जा रही है। रिढ की हड्डी में कंपन महसूस होने लगती है। की बार सब कुछ शुन्य नजर आता है। ध्यान में अलग अलग तरह की आवाजें निकलने लगती है। शरीर चक्की की तरह घुम्ने लगता है। सर अपने आप झुककर जमीन से टिकने लगता है और शरीर मेंढक की तरह उछलने लगता है। नाडीया खिंचने लगता है। व्यक्ति जमीन पर लोटपोट हो जाता है। ध्यान में व्यक्ति सांप की तरह रहता है। ऐसे लगता है जैसे शरीर में कोई प्रवेश कर गया है।
जैसे ही आंख बंद करके बैठौ शरीर में अलग अलग तरह के भाव अलग अलग तरह की योग क्रियाओं से चलायमान होने लगता है। दिन में कभी भी शांत और एकाग्रचित्त होते ही शरीर में कंपन होने लगता है। की बार खुशी का होना तो की बार रोना आता है। अचानक आवेश आता है। व्यक्ति न कर सकने वाला काम भी कर देता है। रुप, रस, गंध अनुभव आते हैं। ये कुंडलिनी जागरण के प्रारंभिक अनुभव है।
कुंडलिनी जागरण के नुक़सान
1. शरीर तैयार होने से पहले ही यदि कुंडलिनी अधिक मात्रा में प्रवाहित हो जाए तो कोई अवर्णनीय बिमारी हो सकती है। शरीर में गर्म और थंड हवाएं लगना अनूभव हो सकता है।
2. अपना एक से अधिक व्यक्तीत्व महसूस हो सकता है। स्मृति विकृत अथवा विनाश हो जाती है।
3. कभी कभी रंग दिखाई देते है, ज्यामितीय आकृतीया दिखाई देती है। पुर्व जन्म की घटनाएं दिखाई देती है।
4. कभी कभी कामोत्तदीपक व्यवहार हो जाता है।
5. दैनिक जीवनयापन योग्य अपने को न समझने जैसी मानसिकता आ जाती है।
6. जीवन को खोने का स्वभाव कभी कभी आ जाता है।
7. मनोदशा का बार बार दोलन होता है।
8. कभी कभी कुंडलिनी प्रवाह से अनिश्चित या अनियमित व्यवहार भी हो जाता है।
9. कभी एकदम प्रतीभाशाली तो कभी एकदम मुढ व्यक्ति अपने को महसूस करता है।
10. कुंडलिनी के अधिक प्रवाह से अपने से , दुसरे से या जीवन से विमुखता भी हो सकती है।
11. शरीर का रुप रंग भी इससे बदल सकता है। कभी उम्र से छोटा या उम्र से बड़ा व्यक्ति दिखाई दे सकता है।
निष्कर्ष
मैं आशा करता हूं कि कुंडलिनी योग क्या है ये आपके समझ में आ गया होगा। अगर आपको ये पोस्ट अच्छी लगी है तो इसे अपने दोस्तों के साथ जरुर शेयर करे।