अष्टांग योग क्या है
भारतीय संदर्भ में एक विकसित सबसे उपयुक्त और प्रभावशाली विधीयो में योग को शामिल किया जाता है। जिसकी पद्धति, महत्व और उपयोगिता को आज सम्पूर्ण विश्व में स्विकार किया जा रहा है। महर्षि पतंजलि को योग के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है। इन्होंने चित्तवृत्तियो के निरोधन के लिए योग प्रणाली का विकास किया। योग का अर्थ होता है कि व्यक्ति के चित्त और ब्रम्हांडीय चिंता के सर्वोच्च मिलन का एकीकरण हो जाना। महर्षि पतंजलि व्दारा रचित अष्टांग योग के आठ अंग है, इसे अष्टांग योग कहा जाता है।
अष्टांग योग के अंग
1.यम - पहला अंग है यम जो संयम से आया है।इसका अर्थ है बाहरी अनुशासन। जब हम इस दुनिया में पैदा होते हैं तो हम बहुत लोगों और वस्तुओं के सम्पर्क में आते हैं। इसमें हमें कैसे व्यवहार करना है,वह ईसमे बताया गया है। महर्षि पतंजलि ने यम मे पांच अनुशासन विचार बताए हैं।
1.अहिंसा - शब्दों, विचारों और कर्मो से अपनी और किसी की हानी नहीं करना।
2.सत्य - विचार और व्यवहार में सत्यता।3.अस्तेय - चोर वृत्ति का नाम होना।
4.ब्रम्हचर्य - ब्रम्ह जैसी चर्या।
5.अपरीग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना।
अगर हम आज के संदर्भ में अपने शब्दों में देखें तो पहला चरण बाहर की दुनिया से हमारा व्यवहार बताता है। चक्रो के संदर्भ में मुलाधार चक्र में सम्भोग की वासना अर्थात दुसरो से सुख मिलने की इच्छा बताया है।अगर ईसमे हमे सहज रहना है तो ये पांच या को आचरण में लाना होगा।
2.नियम - नियम का अर्थ है अंदरूनी अनुशासन या भावनाओ का अनुशासन होना है। महर्षि पतंजलि ने पांच नियम बताए हैं।
1.शौच - शरीर और मन की शुद्धि।
2.संतोष - अपनी स्थिति में सदा संतुष्ट रहना।
3.तप - स्वयं में अनुशासित रहना।
4.स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना।
5.ईश्वर प्रतिधान - परम ऊर्जा के प्रति पूर्ण श्रद्धा।
चक्रो के संदर्भ में स्वाधिष्ठान चक्र भय, घृणा,क्रोध,हींसा ऐसी भावनाओ को लागू होता है। पुरी श्रृष्टी नियम से चलती है सिर्फ मनुष्य ही नियम के विरुद्ध चलता है।पशु, पक्षी,पेड़, पौधे सारे जीव सुरज उगने के साथ उठते हैं और सुरज डुबने पर सो जाते हैं। समय से खान-पान करते हैं, सभी क्रिया समय से करते हैं।
3.आसन - महर्षि पतंजलि ने योग के तिसरे अंग आसन के बारे में बताया है,"स्थिरसुखमासनम"अर्थात स्थिर सुखमय आसन। मतलब शरीर जिसमें बिना तकलीफ के रह सके। वह आसन में स्थिर या बिना हिले डुले रहना।आसन का अर्थ है थोड़ी देर शांति से बैठना।
लोग थोड़ा सा भी शांति से बैठ नहीं सकते। कुछ ना कुछ करते रहते हैं। थोड़ा सा समय मिले तो घुमने निकल जाते है,ईस देश,उस देश,ये जगह,ये मंदिर या धार्मिक जगह।कहीं ना कहीं घूमने निकल जाते हैं। उन्हें लगता है कि हम बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।पर दरअसल ये लोग शांति से बैठ ही नहीं सकते।
आप थोड़ा प्रयोग करके देखें।एक दिन 1घंंटे के लिए कमरा बंद करके बैठे। हिलना डुलना कुंज नहीं करना है।यहां तक की कोई संगीत या कोई प्रवचन नहीं सूनना, मोबाइल भी नहीं देखना या कोई मंत्रोच्चार भी नहीं करना है, सिर्फ 1घंटा बैठना है।तब हमें पता चलेगा कि या तो हम सो जाते हैं,या कुछ करने लगते हैं।पर खाली बैठ नहीं सकते। इसलिए महर्षि पतंजलि को ये आसान का अंग जोड़ना फडा हैं।ईस स्थिर सुखमय आसन में बैठना।
चक्रो के संदर्भ में मनिपुर चक्र संदेह या विचारों को लागू होता है। हमारी कुछ ना करने की आदत नै हमें बहुत नुक्सान दिया है। इसलिए बाद में हठयोग मे से की आसन जोड़े गए,जो की शरीर को स्वस्थ रहने के लिए है।पर मुख्य बात शरीर को न हिलना या स्थिर रखना है।पर हमारे शरीर में पैदा होने वाले विकारों को भी मिटाना होता है।
4.प्राणायाम - महर्षि पतंजलि ने चौथा अंग प्राणायाम बताया है। प्राणायाम का अर्थ सांसों को नियंत्रित करना।चक्रों के संदर्भ में अनाहत चक्र कल्पना और स्वप्न को लागू होता है। हमारे शरीर में परम ऊर्जा उतरती है,तो हम जिवीत होते हैं।पर उसके साथ हमारे उपर जिवात्मा से एक जिवन भी उतरता है।वह जिव अनुभव और इच्छाओं का जोड़ होता है।उसे हम मन भी कहते हैं, और वही हमारी सभी समस्याओं का कारण है।
सांस ही एक ऐसा माध्यम है, जिसमें हम मन से उठने वाले भावना और इच्छाओं को नियंत्रित करते हैं। प्राणायाम में 3 क्रीया भ्रस्त्रिका, कपालभाती, अनुलोम-विलोम प्रचिलीत है,जो की बंद के साथ करना चाहिए।अगर हम अपनी सांसों को नियंत्रित कर लेंगे, तो कल्पना, स्वप्न और मिथ्या बातों से मुक्त हो पाएंगे।
5.प्रत्याहार - महर्षि पतंजलि ने पांचवा अंग प्रत्याहार बताया है। प्रत्याहार का मतलब है,पांचों इन्द्रीयो से बाहर जाती उर्जा को बाहर न जाने देकर अपने अंदर संग्रह करना। महावीर स्वामी ने उसे प्रतिक्रमण कहा है।
चक्रो के संदर्भ में विशुद्धी चक्र गलत मैं को लागू होता है। प्राणायाम करने से हम समझ में आने लगता है कि हमारी उर्जा कहा कि हो रही है।हम जिस में कहा गलती कर रहे हैं। अगर उर्जा को वापस न हो लिया जाए तो वह बाहर जाती रहती है। इसलिए महर्षि पतंजलि ने प्रत्याहार बताया है, की हमारी पांचों इन्द्रीयो से जब हम देखते,चखते, छुते आदि करते हैं तो उर्जा बाहर जाती है।ईस उर्जा को नष्ट ना करें, और जो जरुरी है,वह ही करें।
यहां हमें ये याद रखना है कि जीवन का आनंद सम्भोग करने,खाने पीने में,घुमनै में या बहुत सम्पत्ति जमा करके आराम से रहने में नहीं,पर जीवन का सच्चा आनंद परम आत्मा से एक होकर जीने में है। अगर इन्द्रियों में मिलने वाले आनंद में फंसे रहेंगे तो कभी भी परमआत्मा को नहीं जान पाएंगे। इसलिए हमें बाहर जाती उर्जा को रोकना होगा।
अगर हम अपने विचारों को नहीं सम्भालते तो हमारा गलत मैं आ जाता है।तब हम अपने इच्छाओं को पूरा करने के लिए सब लोगों का बुरा भी कर सकते हैं। ईसलिए महर्षि पतंजलि कहते हैं कि बाहर जाती उर्जा को रोक लो। जब भी हमें ये लगे की मैं सही हूं और मेरे मुताबिक ही होना चाहिए।तब हमें बहुत सम्भालना है।
जब उर्जा को अपने अंदर रोक लेते हैं,तब अपने अंदर एकत्रित हो जाती है।ईस एकत्रित उर्जा हमें मन की बहुत शक्तिया मिलती है। अगर हम उस शक्ति के उपयोग में लग जाए तो मैं सबकुछ हु, ऐसा अंहकार पैदा होता है।
6.धारणा - धारणा एक ऐसी बात है जिससे हम हमारे समाज की नजरों में बहुत सारी अच्छी या बुरी बातें कर सकते हैं।अगर हम उन बातों में फस गए तो जन्मों - जन्मो तक फंसे रहे जाते है।तब हम समाज के लिए काम तो बहुत कर सकते हैं।पर परम ऊर्जा से हमें एक होने का जो आनंद मिलता है, उससे वंचित रह जाते हैं।
चक्रो के संदर्भ में आज्ञा चक्र देव या दानवों को लागू होता है।छटे चक्रों के बाद साधक को ज्ञान योग से ही आगे बढ़ना पडता है। पांच बातें कर्म योग की बराबर करें तो हम छटे धारणा में ज्ञान योग से आगे बढ़ सकते हैं। धारणा का अर्थ मान लेना। जैसे गणित के सुत्रो में हम मान लेते हैं। जिनको ज्यादा गणित आता है,वह कीसी बात को समझाने के लिए एक सूत्र बनाते हैं।
जैसे कि x+y=z को कहा जाता है।X का मुल्य 2,y का मुृल्य 4 है, तो z का मुल्य 6 होगा।एक बार आपको ये सुत्र बराबर समझ में आ जाए तो बाद मे आप कीतनी ही बड़ी संख्या को लेकर ये गणना कर सकते हैं।उसी तरह से जिवात्मा जगत को समझने के लिए ऋषियों ने कुछ क्रियाएं बताई है।
जैसे कहा जाता है कि आप ये मानलो आफ के शरीर में ब्लु हिलींग लाईट आ रही है।अब यहां ब्लु हिलींग लाईट बोलो या गोल्डन लाईट बोलो या परमात्मा की शक्ति बोली,कोई फर्क नहीं पड़ता।जब आपको पता चल जाए कि कुछ आपके शरीर में आता है, और आपके जीवन को मिटाता है।तब आपको समझ में आ जाता है।तब आप उसका उपयोग कर सकते हैं।आप न जानते हुए भी धारणा का उपयोग कर ही रहे हैं।
सही धारणा में होगी कि आप ये सोचे परम आत्मा कभी भी सुरु बातो में हमें फसने ही नहीं देता,तो जिवात्मा जगत में संदेश जाता है।ये जीव सुरक्षित है, और गलत उर्जा हमसे दूर हो जाती है।एक तो मार्ग में है की जिवन को आसान करने के लिए आप खुद कुछ ना कुछ करते रहो।पर आप जो भी करेंगे उसमें आपने अच्छा किया या बुरा किया ऐसी भावना पैदा होंगी।तब आप देश या दानव बनकर रह जाते हो।
दुसरा मांर्ग ये है कि आप ये मान लेते हैं कि परमात्मा आप से जो करवा रहा है,वह मैं कर रहा हूं।तब कोई भावना पैदा नहीं होती है और जब भावना पैदा नहीं होती है,तो भावनाए, इच्छाओं से बने जिवात्मा जगत से हम मुक्त हो जाते हैं।ये बहुत जरुरी हैं।हम धारणा करे की मैं कुछ भी नहीं,सब कुछ परमात्मा से हो रहा है। अगर समझपुर्न धारणा का उपयोग किया जाए तो देश या दानव बनने से मुक्त हो पाएंगे।
7.ध्यान - सातवां अंग ध्यान है और चक्र के संदर्भ में सहस्त्रार चक्र होता है। सहस्त्रार चक्र या ध्यान में आप कुछ कर नहीं सकते। ध्यान होता है। जैसे निंद आप ला नहीं सकते,पर निंद आने के लिए जो जरुरी स्थिति है वह पैदा कर सकते हैं। जैसे आप खड़े हो रहे तो निंद आना मुश्किल है। अगर आप अच्छे बिस्तर पर आराम करो तो जल्द ही निंद आ सकती है।उसी तरह से ध्यान लगाने के लिए जो जरुरी स्थिति है, जैसे कि शरीर को बहुत थकान देना और फिर आराम में लाना।
मन को कुदरती दृष्टियों में वशमुक्त कर देना ताकि वह बाधा न डालें,वह हमें करना होगा। उसके बाद सिर्फ प्रतिक्षा करनी है। वह हमारा मन पुरी तरह से खाली यानी विचार शुन्य हो जाता है।तब परम ऊर्जा उतरती है।उस अनुभव को ध्यान कहते हैं।
ईस दुनिया की तकलीफों को देखकर बहुत लोग दुखी हो जाते है और शांत हो जाते है। ये शांति ध्यान नहीं है। दुःख के कारण जो शांति आती हैं।उसमें आप उदास हो जाते हैं, पर ध्यान के कारण जो शांति आती है, उसमें आप आनंदित हो जाते हैं, उससे बहुत आनंद हो जाता है। पर ध्यान थोड़ी थोडी देर में जुट जाता है। जैसे दुसरा कोई विचार आ गया या किसी ने आवाज दे दी, तो ध्यान तुट जाता है।
याद रहे कि मुझे अब कोई विचार नहीं आ रहा,यह भी एक विचार है और मुझे अब परम ऊर्जा का अनुभव हो रहा है,वह एक अनुभव है।तो जब तक आप कह सके कि ध्यान में ये हो रहा है या वो हो रहा है,तो तक जानना की आपको ध्यान नही लग रहा है। ध्यान जब लगता है तो उस अनुभव को आप किसी भी तरह कह नहीं सकते। इसलिए उसे शुन्य मतलब कुछ भी नहीं कहा गया है।
8.समाधी - जब आपको ध्यान बार-बार लगने लगता है,तो एक वक्त ऐसा आता है कि ध्यान की स्थिति तुटती नहीं ध्यान सतत बना रहता है, उसे समाधी कहते हैं।तब आप शरीर और मन से अलग हो जाते हैं।तब शरीर के सीलने, बोलने,चालने में ध्यान के परम ऊर्जा के साथ का सम्पर्क तुटता नहीं।तब आप जो कार्य करते हैं।वह परम ऊर्जा से ही होता है।
इसलिए गलत कार्य नहीं होता और आपको सभी बातों का समाधान मिल जाता है। अगर आप दैनिक कार्यों में ध्यान रखना शुरू करेंगे तो समाधि के मार्ग में जल्दी प्रगति कर सकेंगे।जब आप कोई काम करते हैं, तब दुसरी बातों का विचार ना करें।
उदाहरण के लिए जब आप खाना खा रहे हैं,तब आफिस के कामों का विचार ना करें और जब आप दफ्तर में काम कर रहे हैं,तब खाने का विचार ना करें।जो काम कर रहे हैं सिर्फ उसका विचार ही करें।आप जितना विचार करेंगे कि चक्र क्या है, योग क्या है, ये सही है या ग़लत है।तब तक आप विचार शुन्य नहीं हो सकते और आपको ध्यान नही लग सकता।सभी बातों को छोड़कर ध्यान की स्थिति लाने में लगाना चाहिए।
अष्टांग योग का महत्त्व
अष्टांग योग के अभ्यास से शारीरिक, मानसिक ंऔर आत्मिक उन्नति होकर क्रम से पंचविद्या वाली अविद्या नष्ट हो जाती है। अविद्या के नाश हो जाने से तज्जन्य अंतःकरण की अपवित्रता का क्षय होता है और आत्मज्ञान होता है।
योग के अंगों का अनुष्ठान करनै से अशुद्धि का क्षण होने से ज्ञान का प्रकाश विवेकख्याति पर्यंत पहुंच जाता है ।
निष्कर्ष
मैं आशा करता हूं कि अष्टांग योग क्या है के माध्यम से हम लोगों ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि को समझने का प्रयास किया है। इन सब अंगों को अपनिने वाला ही एक सच्चा योगी कहलाता है। इन सभी योग के आठ अंगों को अपनाकर कोई भी व्यक्ति एक सच्चा योगी बन सकता है। अगर आपको ये पोस्ट अच्छी लगी है तो इसे अपने दोस्तों को जरूर शेयर करें।
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