यदि आप करीब से देखें, तो आप देखेंगे कि इन सभी में प्राण एक सामान्य शब्द है, जो दीव्यमान है। बहुत निकट से संबंधित शब्द है, प्रणव। ओंकारः और एकाक्षरम के रूप में भी जाना जाता है, प्राणवाः जीवन का स्रोत और नियंत्रक है, जैसा कि हम इसे जानते हैं, और इसलिए, इसे दिव्य, या स्वयं दिव्यता की ध्वनि के रूप में भी जाना जाता है।
इस लेख में हम प्रणव का सही उच्चारण,मूल, महत्व और प्रतीकवाद पर गहराई से विचार करने जा रहे हैं।
ॐ का रहस्य
ॐ को सभी मंत्रों का राजा माना गया है। सभी बिज मंत्र और यंत्र इसी से उत्पन्न हुए है। ॐ की सार्थकता को सिद्ध करने से पूर्व इसके अर्थ का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है। ॐ की ध्वनि एक मात्र ऐसी ध्वनि है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। यह जिवन की शक्ति है।इसी से शब्द को शक्ति मिलती है। यही ॐ का रूप है। ॐ का उच्चारण तिन ध्वनियों से मिलकर बना है। ॐ की महिमा और इसकी अनन्त शक्तियों की व्याख्या वेदों में की गई है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त इस ध्वनि को ईश्वर के समानार्थ माना गया है। यही इस निराकार अन्तहीन में व्याप्त है। ॐ को जानने का अर्थ है ईश्वर को जान लेना। उस अनन्त अविनाशी की स्तुति श्रृष्टि की स्थिति और प्रलय का संपादन इसी ॐ में निहित है। परमपिता परमात्मा की आसिम प्रेम कि अनुभुती भी इसी के द्वारा संभव है।समस्त वैदिक मंत्रों का उच्चारण ॐ के द्वारा ही संपन्न होता है। वेदों की रचनाएं, श्रुतिया ॐ के उच्चारण के बिना अधुरी है। ये दैविक, भौतिक, दैविय शक्तियों का सुचक है। अनेक धार्मिक क्रियाकलापो में ॐ शब्द का उच्चारण होता है। जो इसके महत्व को प्रदर्शित करता है।
प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के अनुसार ब्रह्माण्ड के सृजन से पहले ये मंत्र ही सम्पूर्ण दिशाओ में व्याप्त रहा है। सर्वप्रथम इसकी ध्वनि को श्रृष्टि प्रारंभ माना गया है। ॐ के महत्व को अन्य धर्मो ने भी माना है। ॐ के उच्चारण से मन, मस्तिष्क में शांति का संचार होता है। अगर कोई मनुष्य अपने जीवन में साधना, तपस्या के द्वारा ॐ का चिंतन करता है तो उसे असिम ज्ञान की प्राप्ति होती है। वो मनुष्य अपने सहस्त्र पापों से मुक्त हो जाता है तथा मोक्ष को प्राप्त होता है। यह ब्रम्हांड की अनाहत ध्वनि है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में यह अनवरत जारी है।इसका नाम ही आरंभ है और ना ही अन्य तपस्वी और साधक सभी सीटों अपनाते हुए प्रभु की भक्ति में स्वयं को मग्न कर पाते हैं। जो भी ॐ का उच्चारण करता रहता है। उसके आस पास सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगता है।
ॐ शब्द को ब्रम्हा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी कहा गया है। ॐ कार बाराह कलाओं से युक्त माना गया है। इसकी सभी मात्राएं महत्वपूर्ण अर्थ को व्यक्त करती है। इसकी बाराह कलाओं की मात्रा में सबसे पहले मात्रा घोषणी है, दुसरी मात्रा विदिम्न है, तिसरी पातंगी है, चौथी वायुवेगनी है, पांचवीं नामधया है, छटी एन्द्री है, सातवीं वैष्णवी है, आठवीं शांकरी है, नौवीं मेहती है, दसवीं घृती है, ग्यारवीं मात्रा नारी और बाराहवी मात्रा को ब्राम्हणी नाम दिया गया है।
जब कोई साधक ॐ का ध्यान करता है तो प्रारंभिक अवस्था में विभिन्न ॐ स्वरो में सुनाई पड़ती है। परंतु धीरे धीरे अभ्यास द्वारा इसका भेद समझ में आने लगता है। आरंभ में ये ध्वनि समुद्र, बादलो तथा झरनों से उत्पन्न ध्वनि जैसी सुनाई देती है। लेकिन बाद में ये ध्वनि नगाडो व मृदंग के ध्वनि की तरह सुनाई देति है। और अन्त में ये मधुर तान जैसी बांसुरी एवं विणा जैसी सुनाई देती है। ॐ कार में लिन व्यक्ति विषय वासना से दूर रहता है और परमतत्व का अनुभव करता है।
ॐ का महत्व क्या है
ॐ या ॐ कार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। उच्चतम अवस्था में साधक का आध्यात्मिक व्यक्तित्व पुरी तरह से प्रभु के साथ एकाकार हो जाता है। जो अन्तर्यामी है वहीं सारे ज्ञान एवं शब्द ॐ का स्त्रोत है।प्रायं सभी ग्रंथों का आरंभ देवता का नमस्कार अथवा गुरु के लिए ॐ से ही प्रारंभ होता है। जैसे ॐ गुरुवै नमः
ॐ के उच्चारण से , उसके ध्वनि से वातावरण शुद्ध होता है। सकारात्मक उर्जा का निर्माण होता है। पवित्र वातावरण का अनुभव होता है। ॐ मंत्र जाप से हम ध्यान की स्थिति में पहुंच जाते हैं। जो हमें असिम शक्ति प्रदान करती है। इस मंत्र में इतनी शक्ति होती है की हमारी एकाग्रता को बढ़ा देती है।ॐ के जाप से थायराइड ग्रंथि और श्वास नलिका के उपचार में लाभ होता है। इस मंत्र से हृदय रोगी निवारण भी होता है। इसमें अद्भुत क्षमता होती है। इसका जप हृदय को साधारण गति कार्यरत होने में सहायता प्रदान करता है।
ॐ की उत्पत्ति कैसे हुई
ॐ ध्वनि की प्रकृति पर ध्यान दिया जाए तो हमें पता चलेगा कि इसमें तिन अक्षरों का समावेश है, अ उ, और म। अ का अर्थ है आविर्भाव अर्थात उत्पन्न होना। उ का अर्थ है उठना अर्थात विकास होना। म का अर्थ है मौन हो जाना अर्थात मृत्यु को प्राप्त करना। अ ब्रम्ह का वाचक है और उच्चारण द्वारा हृदय में उसका त्याग होता है। उ विष्णु का वाचक है उसका त्याग कंठ में होता है। तथा म रुद्र का वाचक है और उसका त्याग तालु मध्य में होता है। इस प्रकार से ब्रम्ह ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि तथा रुद्र ग्रंथि का छेदन हो जाता है। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कुछ उत्पत्ति और पुरी श्रृष्टि का द्वैतक है। आसान भाषा में कहै तो निरंकार ईश्वर को एक शब्द में व्यक्त किया जाए तो वह शब्द ॐ होंगा।
ॐ किसका प्रतीक है
श्रृष्टि के रचैता ब्रम्हा, पालनहार विष्णु, और संहारक महेश का संयुक्त रूप है ॐ। इस शब्द में ही पुरी श्रृष्टि समाई हुई है। ॐ की ध्वनि बिना किसी संयोग और टकराव के पुरे ब्रह्माण्ड में गुंजति रहती है। इसलिए इसके उच्चारण से आसपास सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण होने लगता है।
ॐ की आधार शक्ति
ॐ शब्द हिन्दु सभ्यता को प्रदर्शित करता है। ईश्वर को ॐ से दर्शाया जाता है। ॐ तिन वर्ण अ,उ,म से मिलकर बना है। जो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड सदा ॐ की ध्वनि से गुंजा रहता है। चाहे पृथ्वी हो अन्य ग्रह सभी नांद करते हैं। ध्यान से सुना जाए तो वह ॐ की ध्वनि होती है। किसी भी मंत्र से पहले अगर ॐ जोड़ दिया जाए तो वह पूर्ण और शुद्ध हो जाता है।
ॐ का विज्ञान
ॐ ही केवल विश्व में वह शब्द है, वो नांद है जो मोनोसेलैबल अर्थात एक हिस्से या हिज्जे अर्थात मुंह के द्वारा एक बार में बोलने वाला शब्द है। जिसकी लम्बाई, चौडाई एक हिस्से के शब्दों में सबसे अधिक है, उदाहरण दिया, कार्य, हम। एक हिस्से के ॐ बोलने में सबसे कम उर्जा मस्तिष्क की लगती है। क्योंकि इसमें जीव्हा को तो बिल्कुल भी क्रिया में आने की आवश्यकता नहीं पड़ती। और इसी ॐ में विश्व की ध्वनि तरंगें समाहित हो जाती है। क्योंकि इसमें ध्वनि तरंग का आयाम सबसे बड़ा होता है।
अन्य किसी भी मोनोसेलेबल शब्द का नाम इतना बड़ा नहीं होता। अतः अन्य छोटी छोटी ध्वनि तरंगें इस विशालतम ध्वनि तरंग में समा जाती है। जैसे एक तरफ समुद्र हो और दूसरे ओर छोटे छोटे झील या तालाब कुंड। इसका जाप करने से दैवि शक्ति रिढ के निचले सिरे से उठकर मस्तिष्क में चली जाती है।इस कारण मानसिक रोगी ठीक हो जाते हैं। मनुष्य को आनन्द मिलता है। अतः ब्रम्हांड की अनंत शक्ति जो ध्वनि तरंगों में अभिव्यक्त की जा सकती है। वो ॐ ही है।
अंतिम विचार
तो, अगर इस ध्वनि के कई संस्करण हैं, तो संस्कृत के उच्चारण के तरीके को क्या सही बनाता है? यह हिमालय और हिंद महासागर के बीच संरक्षित भूमि में जो कुछ हुआ उसके महत्व के कारण है।
यह इस संरक्षित संस्कृति द्वारा निर्मित ऋषियो की संख्या है। हमारे पास इतने सारे लोग थे जो अपने भीतर की दिव्यता तक पहुँचने में पूरी तरह सक्षम हो गए। हमने भाषा, कला, नृत्य, संगीत, गणित और चिकित्सा गढ़ी, यह सब एक ही चीज़ पर केंद्रित था।
भीतर की ओर मुड़ने और भीतर देवत्व तक पहुँचने की मानवीय क्षमता को बढ़ाना। यहां तक कि हमने अपनी भूमि को भरतम् कहा, और स्वयं को भरतियाः, वह भूमि जो अस्तित्व के प्रकाश में आनंदित होती है, और जो लोग इसके अनुरूप हैं। यही कारण है कि संस्कृत में अमूल्य जानकारी का इतना खजाना है।