जो मनुष्य प्रदोष व्रत करते हैं उनके जीवन में भी आर्थिक संकट नहीं आते हैं।शनी प्रदोष और सोम प्रदोष काल तो बहुत अधिक महत्व है।जो मनुष्य शनिवार के दिन आने वाली प्रदोष काल व्रत करते हैं उनके जीवन में कभी भी आर्थिक संकट नहीं आता है।
करोड़ों चंद्रमा के समान कान्तिमान त्रिनेत्र धारी मस्तक पर चन्द्रमा का आभुषण धारण करने वाले, पिंगल वर्ण के जटाधारी निलकन्ट,अनेक रुद्राक्ष मालाओ से सुशोभित वरदहस्त त्रिशूल धारी,नागो के कुंडल पहने व्याघ चरनधारण कीये हुएं,रतन जडीत सिंहासन पर विराजमान शिवजी का ध्यान करना चाहिए।
प्रदोष व्रत कब आता है
प्रत्येक महिने मे आने वाली त्रयोदशी तिथियों को त्रयोदशी व्रत किया जाता है।
प्रदोष व्रत की पुजा विधी
प्रदोषावहीने मुखम के अनुसार शाम के समय और रात्रि आने के पूर्व दोनों के बीच के समय को प्रदोष कहते हैं। व्रत करने वाले को उसी समय भगवान शंकर का ध्यान करना चाहिए, पुजन करना चाहिए। प्रदोष व्रत करने वाले को त्रियोदशी के दिन दिनभर भोजन नहीं करना चाहिए।
- शाम के समय जब सुर्यास्त में तीन घड़ी का समय शेष रह जाए तब स्नान आदि कर्मों से निवृत्त होकर श्वेत वस्त्र धारण करना चाहिए।
- इसके बाद संध्या वंदन करने के बाद शिवजी का पूजन करें। पुजा के स्थान को स्वच्छ जल से धोकर मंड़प बनाए।
- वहां पांच प्रकार के पुष्पों से पद्म पुष्प की आकृति बनाकर कुश का आसन बिछाएं। और आसन पर पुर्व की और मुख करके बैठ जाएं।
- इसके बाद भगवान शंकर की पूजा, आराधना करें, कथा करें।
व्रत के उद्यापन की विधि
- प्रातः स्नान आदि कार्य से निवृत्त होकर रंगीन वस्त्रों से मंडप बनाएं। फिर उस मंडप में शिव पार्वती कि प्रतिमा स्थापित करके विधीवत पुजा करें।
- इसके बाद शिव पार्वती के उद्देश्य से खीर से अग्नि में हवन करना चाहिए।हवन करते समय ॐ उमाशिवाय नमः मंत्र से 108 बार आहुति देनी चाहिए।इसी प्रकार ॐ नमः शिवाय के उच्चारण के शंकर जी के निमित्त आहुति प्रदान करे।
- हवन के अन्त में किसी धार्मिक व्यक्ति को सामर्थ्य के अनुसार दान देना चाहिए।
- ऐसे करने के बाद ब्राह्मण को भोजन दक्षिणा से संतुष्ट करे। व्रत पूर्ण हो ऐसा वाक्य ब्राह्मणों व्दारा कहलवाना चाहिए।
- ब्राम्हणों के आज्ञा का पाकर अपने बंधु, बांधवों को साथ ले मन में भगवान शंकर का स्मरण करते हुए व्रती को भोजन करना चाहिए।
- ईस प्रकार उद्यापन करने से व्रती पुत्र पोत्रादी से युक्त होता है। आरोग्य लाभ करता है। इसके अतिरिक्त वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। ऐसा स्कंद पुराण में कहा गया है।
प्रदोष व्रत का महत्व
जो व्यक्ति त्रयोदशी व्रत करते हैं। अर्थात प्रदोष का व्रत करते हैं वह सदा सुखी रहते है। उनके सम्पूर्ण पापों का नाश ईस व्रत के करने से हो जाता है। प्रदोष व्रत करने से विधवा स्त्रियों को अधर्म से ग्लानी होती है। सुहागिन नारीयो का सुहाग सदा अटल रहता है। बंधी कारागृह से छुट जाता है।जो स्त्री पुरुष कामना को लेकर व्रत करते हैं।उनकी सभी कामनाएं कैलाश पति शंकर पुर्ण करते हैं।
शिव जी कहते हैं त्रयोदशी अर्थात प्रदोष व्रत करने वाले को सौ दान का फल प्राप्त होता है।ईस व्रत को जो विधी विधान और तन-मन से करता है।उसके सभी दुःख दूर हो जाते हैं।प्रदोष व्रत जिस वार को भी होता है। वहीं प्रदोष व्रत गिना जाता है। जैसे कि यदि प्रदोष रविवार को आ जाए तो उसे रवि प्रदोष कहते हैं। यदि प्रदोष व्रत सोमवार को आ जाए तो उसे सोम प्रदोष कहते हैं।
शशी प्रदोष का बहुत अधिक महत्व है और यह अभिष्ट फल देने वाली है।शनि प्रदोष व्रत करने वाले को खोया हुआ राज्य वापस प्राप्त होता है। इसलिए हो सके तो सभी प्रदोष व्रत करे। यदि प्रदोष व्रत नहीं कर पा रहे हो तो प्रदोष व्रत की कथा अवश्य सुनें। जो मनुष्य प्रदोष व्रत करते हैं उनकी शादी नहीं हुई तो शादी शीघ्र हो जाती है।
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शनि प्रदोष व्रत कथा
गर्गाचार्य जी ने कहा है हे महामते आपने शिव शंकर के प्रसन्नता हेतु समस्त प्रदोष व्रतों का वर्णन किया। अब हम शनि प्रदोष विधि सुनने की इच्छा रखते हैं। तो कृपा करके हमें सुनाईए। तब सुत जी बोले हे ऋषिगण निश्चित रूप से आप का शिव पार्वती के चरणों में अत्यंत प्रेम है।मैं आपको शनि त्रयोदशी व्रत की विधि बताता हूं।तो ध्यान से सुनो।
पुरातन कथा के अनुसार एक निर्धन ब्राह्मण की स्त्री दरिद्रता से दुःखी हो शांडिल्य ऋषि के पास जाकर बोली हे महामुनि मैं अत्यंत दुखी हुं। दुःख निवारण का उपाय बताईए। मेरे दोनो पुत्र आपके शरण में है।मेरे ज्येष्ठ पुत्र का नाम धरम है।जो कि राज पुत्र हैं। और लघु पुत्र का नाम श्रुतिपव्रत है। अर्थात हम दरीद्र है।आप ही हमारा उद्धार कर सकते हैं। इसकी बात सुन ऋषि ने शनि प्रदोष व्रत करने के लिए कहा। तिनों प्राणी प्रदोष व्रत करने लगे।
कुछ समय के बाद प्रदोष व्रत आया ।तब तिनों ने व्रत का संकल्प लिया।छोटा लड़का जिसका नाम श्रुतिव्रत था।एक तालाब पर स्नान करने को गया। उसके मार्ग में स्वर्ण कलश धन से भरपूर मिला।उसको लेकर वह घर आया। प्रसन्न हो माता से कहा कि मां यह मार्ग से प्राप्त हुआ है।मां ने धन देखकर शिव महिमा का वर्णन किया।राज पुत्र को अपने पास बुलाकर बोली देखो पुत्र यह धन हमें शिवजी की कृपा से प्राप्त हुआ है। अतः प्रसाद के रूप में दोनों पुत्र आधा-आधा बांट लो। माता का वचन सुन राज पुत्र ने शिव पार्वती का ध्यान किया, बोला पुज्य मां ये धन आपके पुत्र का है मैं उसका अधिकारी नहीं हु।यह शंकर भगवान माता पार्वती जब देंगी तभी लुंगा। इतना कहकर वह राज पुत्र शंकर जी की पूजा में लग गया।
एक दिन दोनों भाइयों का प्रदेश भ्रमन का विचार हुआ।वहां उन्होंने एक गंधर्व कन्याओं को क्रिडा करते हुए देखा। उन्हें देख श्रतिव्रत ने कहा भैया अब हमें इससे आगे नहीं जाना। इतना कह श्रतिव्रत उसी स्थान पर बैठ गया। परन्तु राजपूत्र अकेला ही स्त्रियों के बिच में जा पहुंचा।वहां एक स्त्री आती सुन्दरी राजपुत्र कुमार को देखकर मोहित हो गई।राजपुत्र के पास पहुंचकर कहने लगी ये सखीयो ईस वन के समिप ही जो दुसरा वन है तुम वहां जाकर देखो भांति-भांति के पुष्प खिले हैं।वहां सुहावना समय है। उसकी शोभा देखकर आओ।मैं यहां बैठी हुई।मेरे पैर में बहुत पिछड़ा है।ये सुन सभी सखियां दुसरे वन में चली गई।वह अकेली सुन्दर राजकुमार की और देखती रही।उधर राजकुमार भी कामुक दृष्टि से निहारने लगा। युवती बोली आप कहां जा रहे हैं।वन में कैसे पधारे।किस राजा के पुत्र हैं। क्या नाम है। राजकुमार बोला मैं विदर्भ नरेश का पुत्र हु। आप अपना परिचय दे।
युवती बोली मैं विद्रविक नाम के गंधर्व की पुत्री हु।मेरा नाम अंशुमती है मैने आपकी मनःस्थिति को जान लिया है।आप मुझ पर मोहित है। विधाता ने हमारा तुम्हारा संयोग मिलाया है युवती ने मोतीयों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया। राजकुमार हार स्वीकार करते हुए बोला हे भद्रे मैंने आपका प्रेम स्विकार कर लिया है। परन्तु मैं निर्धन हु। राजकुमार के वचनों को सुनकर गंधर्व कन्या बोली मैं जैसा कह चुकी हु लेसा ही करुंगी।आप अपने घर जाएं।इतना कहकर वह गंधर्व कन्या सखियों से जा मिली।
घर जाकर राजकुमार ने श्रुतिव्रत को सारा वृत्तांत कह सुनाया।अब तिसरा दिन आया।वह राजपूत्र श्रुतिव्रत को लेकर उसी वन में जा पहुंचा। वहीं गंधर्वराज अपनी कन्या को लेकर आ पहुंचा। दोनो राजकुमारो को देख आसन ने कहा मैं कैलाश पर्वत पर गया था। वहां शंकर जी ने मुझसे कहा की धर्मगुप्त नाम का राजपुत्र है वह इस समय राज्य विहिन है।मेरा परम भक्त है।हे गंधर्व राज उसकी सहायता करो।मैं महादेव जी की आज्ञा से ईस कन्या को आपके पास लाया हुं।आप ईसका निर्वाह करें।मैं आपकी सहायता कर आपको राजगद्दी पर बिठा दुंगा।ईस प्रकार गंधर्व राज ने कन्या का विधीवत विवाह किया। विशेष धन और सुंदर कन्या को पाकर राजपुत्र अती प्रसन्न हुआं।भगवत कृपा से समय अनुसार राजपुत्र नेअपने शत्रुओं का दमन किया और राज्य का सुख भोगने लगा।